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Monday, October 18, 2010

राजनीति में सिनेमा और सिनेमा में राजनीति

राजनेता विलासराव देशमुख के सुपुत्र रितेश देशमुख अभिनय क्षेत्र में सक्रिय हैं और बहुसितारा फिल्मों में नजर आते हैं। उनके अपने कंधे पर फिल्म नहीं चल सकती। शीघ्र ही रामविलास पासवान के सुपुत्र चिराग पासवान ‘वन एंड ओनली’ नामक फिल्म में नजर आएंगे। नेता और अभिनेता दोनों का भाग्य आम आदमी तय करता है, परंतु चुनाव में योग्यता के अतिरिक्त बहुत सी और बातें भी जीत तय करती हैं। फिल्म में ‘ये और बातें’ अभिनेता की मदद नहीं करतीं। स्पष्ट है कि आम आदमी अपना मनोरंजन चुनने में गफलत नहीं करता, परंतु नेता के चुनाव में उससे चूक हो जाती है क्योंकि उस पर जाति और धर्म का दबाव भी रहता है।

मनोरंजन क्षेत्र में जाति और धर्म अहमियत नहीं रखते, क्योंकि यह खेल मुस्कान और आंसू का है, जिनका जाति और धर्म से कोई संबंध नहीं। यह क्या कम है कि कुछ चीजें आज भी जाति और धर्म से परे हैं। सच तो यह है कि भूख भी जाति और धर्म से परे है। आदमी भूख से जूझता है, देवता इस परीक्षा से परे हैं। इस क्षेत्र में एक दिन भी भूमिकाओं की अदला-बदली किसी भी पक्ष को सहन नहीं होगी।

बहरहाल, दक्षिण भारत में मनोरंजन और राजनीति क्षेत्र एक-दूसरे के निकट हैं और मनोरंजन क्षेत्र के अनेक लोग वहां मुख्यमंत्री रहे हैं। इसकी शुरुआत द्रविड़ मुनेत्र कषगम आंदोलन से हुई थी। यह कहा जा रहा है कि करुणानिधि के नजदीकी रिश्तेदार हैं मारन, जिन्होंने रजनीकांत अभिनीत ‘रोबोट’ बनाई है और वह सन टीवी के भी मालिक हैं। तमिल में इस फिल्म का नाम ‘रोबोट’ नहीं रखा गया है, क्योंकि वहां विशुद्ध तमिल फिल्म को मनोरंजन कर में रियायत मिलती है। फिल्म की सफलता का आधार रजनीकांत की लोकप्रियता है, परंतु यह भी सच है कि सरकार परोक्ष रूप से मदद कर रही है। कोई भी सरकार रजनीकांत अभिनीत फिल्म के निर्माता, वितरक या प्रदर्शक के काम में बाधा नहीं डालती।

दक्षिण की फिल्मों में राजनीतिक बयान भी होते हैं और उन संवादों पर सिनेमाघर में तालियां पड़ती हैं और रजनीकांत विरोधी बात पर गालियां सुनाई देती हैं। इस तरह दक्षिण के सिनेमाघर चुनावी राजनीति का अखाड़ा बन जाते हैं। दक्षिण में रजनीकांत के 50 हजार फैन क्लब पंजीकृत हैं और अन्य 50 हजार फैन क्लब भी सक्रिय हैं।

बहरहाल, सभी राजनेताओं के मन में यह इच्छा पल रही है कि उनका बेटा अभिनय क्षेत्र में सफलता पा ले। उसकी मौजूदगी चुनावी सभाओं में भीड़ जुटा सकती है और फिल्ममय भारत में शायद चुनावी हवा भी बना सकती है। राहुल गांधी की सफलता के बाद नेताओं ने यह सोचना शुरू कर दिया है कि अपने राजकुंवर का राजनैतिक अभिषेक कराना ज्यादा फायदेमंद है क्योंकि जितना धन राजनीति में है, उतना मनोरंजन क्षेत्र में नहीं है।

प्राय: लोग खेतों से, कारखानों से या दुकानों से धन कमाते हैं और धन से भी धन कमाया जाता है, परंतु राजनीति में धन अनेक स्रोतों से आता है। आजकल तो सरकारी खजाने का राजनीतिक इस्तेमाल किया जा रहा है। चंदे के धंधे से ज्यादा सरल है यह खेल। किसी उपक्रम को धन दिला दो और आधा माल कमीशन में पा जाओ। बेचारे करदाता को मालूम ही नहीं कि उसका धन किन रास्तों से कहां जा रहा है।

बहरहाल, राजनेता से लाभ उठाने वाले लोग उनके पुत्रों की फिल्मों में भी धन लगा सकते हैं। सत्ता के महल में कालीन सा बिछ जाने में बिचौलियों ने महारत हासिल की है। इस तरह के लोगों की मांसपेशियां च्युइंगम से बनी होती हैं। ऊपरवाले के भव्य कारखाने में रीढ़ की हड्डी का स्टॉक खत्म हो गया है(जयप्रकाश चौकसे,दैनिक भास्कर,18.8.2010)।

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